वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर हर किसी के हिसाब से अलग हो सकता है। पर क्या आप सही मायने में अपने जीवन को जी पा रहे है जिसमे वो तमाम खुशियाँ है,जहाँ दुख का नाम मात्र तक नही।जहां किसी से कोई क्लेश तक नही। भाई-चारे का पाठ जहाँ हर कोई पढ़ा हो।एक दूसरे की मदद करने को हर कोई तैयार हो। ऊपर दी गयी तस्वीर यही बयां कर रही है कि आप अपने आप को कैसा देख-समझ रहे है ?
पर अगर गौर किया जाए तो हमारी जिंदगी में इन सबके विपरीत परिस्थितियां चल रही है।सगे भाई एक दूसरे को देखना नही चाहते । जहाँ माता-पिता की सेवा करनी है वहां हम उनका अपमान करते है। कोई भी वयक्ति किसी की मदद तो तैयार नहीं।परिस्थितियां कितनी भी विपरीत क्यों न हो पर किसी मे धैर्य नही। किस सुख की बात करे ;चेहरे पर मुस्कान तक नही रहती ।क्यों, क्योंकि कोई भी अपने आप मे संतुष्ट नही है।संस्कृत में एक कहावत है "सन्तोषम परम् धनम "। जहाँ तक मेरी अपनी राय है अगर मनुष्य इस बात को समझ जाये तो उसकी जीवन से दुख का संसार विलुप्त हो जाएगा।
अब एक प्रश्न और आता है कि अगर सन्तोषम परम् धनम से आदमी खुश रह सकता है, सुखी जीवन बिता सकता है तो फिर इतनी कठोर परिश्रम करने की आवश्यकता क्या है ?
इस प्रश्न का उत्तर अगले पोस्ट में जानेंगे।आप अपनी राय जरूर दें।
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